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पुस्तक समीक्षा शाहनवाज़ आलम



महान समाज सुधारक और स्वतंत्रता सेनानी महादेव गोविंद रानाडे की 101 वीं जयंती पर बाबा साहब डॉ भीमराव अम्बेडकर द्वारा 18 जनवरी 1943 को पुणे के गोखले मेमोरियल हॉल में दिया गया भाषण रानाडे पर उपलब्ध बहुत कम सामग्रियों में से एक है. अंबेडकर ने इसमें रानाडे का गांधी और जिन्ना के साथ तुलनात्मक विश्लेषण किया है. लेकिन इस भाषण की खासियत लोकतांत्रिक समाज बनाने में राजनीति से ज़्यादा सामाजिक बदलावों की ज़रूरतों पर अंबेडकर का विचार है. सामाजिक सुधारकर्ता और राजनीतिक क़ैदी के बीच तुलना करते हुए अंबेडकर कहते हैं कि कोई समाज किसी सरकार से ज़्यादा आततायी और दमनकारी होने का अधिकार  और संभावना रखती है. 

किसी सरकार के पास मौजूद सज़ा के प्रावधानों में से किसकी तुलना समाज द्वारा किसी को जाति या धर्म से बहिष्कृत कर दिए जाने की सज़ा से की जा सकती है? वो कहते हैं कि जब कोई समाज सुधारक समाज की मान्यताओं को चुनौती देता है तब वो अकेले होता है. लोग उससे दोस्ती नहीं रखते. समाज ख़िलाफ़ खड़ा होता है. लेकिन एक राजनीतिक कार्यकर्ता जब सरकार का विरोध करता है तो एक बड़ा हिस्सा उसके साथ खड़ा होता है. इसलिए सामाजिक सुधारकर्ता ज़्यादा साहसी होता है. (पेज 21)। 
अंबेडकर रानाडे के समय का मूल्यांकन करते हुए कहते है कि उस समय बौद्धिक वर्ग दो हिस्सों में बंटा था. एक परंपरावादी और ग़ैर राजनीतिक था. इसका नेतृत्व चिपलुंकर करते थे और दूसरा वर्ग आधुनिक और राजनीतिक उद्देश्यों वाला था. जिसका नेतृत्व तिलक करते थे. अंबेडकर कहते हैं कि इन दोनों धाराओं ने रानाडे के सुधारवादी अभियानों के सामने एक साथ मिलकर चुनौती उत्पन्न की. (पेज 22)

वो कहते हैं ‘ हिन्दू धर्म और उसकी सामाजिक व्यवस्था ऐसी है कि आप उसके आदर्श को वास्तविकता में नहीं बदल सकते क्योंकि उसका आदर्श ही ख़राब है. और ना ही आप उसकी वास्तविकता को आदर्श मान सकते हैं क्योंकि वो ख़राब से भी बदतर है. (पेज 22). अंबेडकर कहते हैं यह व्यवस्था अपने आकार और मूल में नीत्शेवादी है. जिसे नीत्शे के आने से बहुत पहले मनु ने स्थापित कर दिया था. नीत्शे का ‘अतिमानव’ ही मनु का ब्राह्मण है. दोनों सिर्फ शासन करने और बाक़ी उसकी सेवा करने के लिये बने हैं. हिंदू दर्शन चाहे वो वेदांत हो, सांख्य हो, न्याय हो या वैशाशिका एम, सभी बिना हिंदू व्यवस्था को चुनौती दिए अपनी परिधि में घूमते रहे. (पेज 23). 

लोकतांत्रिक सरकार के सिद्धांत पर अंबेडकर कहते हैं कि लोग इस भ्रम का शिकार रहते हैं कि लोकतंत्र शासन की एक पद्धति है. लेकिन ऐसा नहीं है. वह समाज का एक प्रारूप है. एक लोकतांत्रिक समाज के लिए यह ज़रूरी नहीं कि उसमें एकता, उद्देश्य की समानता, एक जैसी निष्ठा दिखे लेकिन वहाँ दो बातें ज़रूर दिखेंगी. लोगों की ऐसी मनः स्थिति जिसमें दूसरों के प्रति सम्मान और समानता का भाव. दूसरा, सामाजिक जड़ता मुक्त सामाजिक ढाँचा. लोकतंत्र लोगों को अलगाव में रखकर अस्थायी और असंगत बना रहेगा क्योंकि इससे विशेषाधिकार और अधिकाररहित लोगों का निर्माण होगा. अंबेडकर कहते हैं कि दुर्भाग्य से रानाडे की इस बात को उनके विरोधी नहीं समझ पाए. (पेज 29)
इस बात को अंबेडकर और स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि अधिकार क़ानून द्वारा संरक्षित नहीं होते हैं. बल्कि समाज की नैतिक और सामाजिक चेतना उसकी रक्षा करती है. अगर सामाजिक चेतना ऐसी है कि वो क़ानून द्वारा किसी को दिए गए अधिकार को मान्यता देता है तो वो अधिकार सुरक्षित रहेंगे. लेकिन अगर समाज का एक बड़ा हिस्सा मौलिक अधिकारों का विरोधी हो तो उसे कोई भी संसद या न्यायपालिका उसको बचा नहीं पाएगा. अंबेडकर पूछते हैं कि अमरीका के नीग्रो, जर्मनी के यहूदियों और भारत के अछूतों के लिए मौलिक अधिकार किस काम के हैं. (पेज 28)
राजनीति में अंध भक्ति पर अंबेडकर ने उस समय भी सचेत किया था. अंध भक्ति वाले नेता अपने आधे अंधभक्तों को मूर्ख और आधों को पाखंडियों में तब्दील कर देते हैं. इस काम में उन्हें बड़े पूँजीपति और धनपशु सहयोग देते हैं. अमरीकी राष्ट्रपति रूज़वेल्ट के हवाले से अंबेडकर कहते हैं कि आज नहीं तो कल जो सवाल रूज़वेल्ट ने अमरीकियों से पूछा था वो हमारे सामने भी आयेंगे कि हम पर शासन कौन करेगा दौलत या इंसान. कौन नेतृत्व करेगा- पैसा या बौद्धिकता? सार्वजनिक पदों को कौन भरेगा- शिक्षित और देशप्रेमी या सामंती और कॉर्पोरेट पूँजी के दलाल? (पेज 36)
क्या ये सवाल हमारे आज के दौर के सवाल नहीं लगते?

अंधभक्ति के अलावा अंबेडकर ने राजनीति में महापुरुषों ख़तरे पर भी बात की है. मीडिया को अपने नियंत्रण में लेकर सत्ता के लिए महापुरुषों का उत्पादन और आसान हो गया है. वो कहते हैं कि जब जेबकतरों से सावधान रहने का निर्देश लिखा जा रहा है तो उसी तरह महापुरुषों से सावधान रहने का भी निर्देश लिखा जाना चाहिए. (पेज 40)
‘महामानव’ मोदी समेत तमाम बाबाओं के उत्पादन में हम इस खेल को देख सकते हैं. 

अंबेडकर कहते हैं कि रानाडे जहाज़ के उस कैप्टन की तरह थे जिन्हें अपनी ज़िम्मेदारी पता थी और जो सिर्फ़ लोगों को भ्रमित करने के लिए बीच समंदर में करतब नहीं दिखाते थे. (पेज 41)
क्या भारत के जहाज़ की कमान आज एक ऐसे ही व्यक्ति के हाथ में सिर्फ़ इसलिए नहीं चला गया है उसे बहुसंख्यकों ने बहुमत से जिताया है. 
लेकिन अम्बेडकर फिर चेतावनी देते हैं कि तानाशाह सिर्फ़ इसलिए तानाशाह नहीं रह जाता कि वो चुनाव जीतकर सत्ता में आया है या तानाशाही का समर्थन कोई सिर्फ़ अपने इस आधार पर नहीं कर सकता कि वो उनकी बिरादरी का है. (पेज 50)

सम्यक समेत कई प्रकाशनों से छपी 80 से 100 रुपये में उपलब्ध इस किताब को ज़रूर पढ़ा जाना चाहिए.


(समीक्षक कांग्रेस के राष्ट्रीय सचिव हैं)



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