लखनऊ, 26 अक्टूबर 2025. सुप्रीम कोर्ट द्वारा उत्तर प्रदेश
के धर्मान्तरण विरोधी क़ानून पर सवाल उठा दिए जाने के बाद इसे रद्द कर दिया
जाना चाहिए. वहीं इसमें फंसाए गए लोगों को सरकार से मुआवाजा दिलवाने की
गारंटी भी न्यायपालिका को करनी चाहिए. ये बातें कांग्रेस के राष्ट्रीय सचिव
शाहनवाज़ आलम ने साप्ताहिक स्पीक अप कार्यक्रम की 118 वीं कड़ी में कहीं.
गौरतलब
है कि पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने फतेहपुर के ईसाई वर्ग के लोगों पर
धर्मान्तरण के आरोपों में दर्ज एफ़ाइआर को रद्द कर दिया था.
शाहनवाज़
आलम ने कहा कि हाल ही में जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा का
एक सुनवाई के दौरान यह कहना कि 'ऐसा प्रतीत होता है कि यह कानून इसलिए
बनाया गया है कि किसी के धर्म परिवर्तन करने की प्रक्रिया में सरकारी
मशीनरी के दखल को बढ़ाया जा सके' साबित करता है कि योगी सरकार की आपराधिक
मंशा को सुप्रीम कोर्ट ने पकड़ लिया है. उन्होंने कहा कि कोर्ट का यह कहना
कि 'इस क़ानून की यह अनिवार्यता कि धर्मान्तरण करने वाला अपने धर्म की घोषणा
करे व्यक्ति के निजता के अधिकार के भी खिलाफ़ है क्योंकि धर्म व्यक्तिगत
मामला है. इस संबंध में घोषणा करने की बाध्यता निजता के खिलाफ है,' साबित
करता है कि यह क़ानून मौलिक अधिकार पर हमला है.
उन्होंने
कहा कि आख़िर यह कैसे हो सकता है कि सुप्रीम कोर्ट की नज़र में मौलिक
अधिकारों का हनन करने वाला कोई क़ानून बना भी रह जाए और कोर्ट उसपर सवाल
करके चुप भी बैठ जाए. कोर्ट सिर्फ़ किसी क़ानून की वैधता जाँचने वाली एजेंसी
नहीं है. उसे गलत क़ानूनों को रद्द भी करना चाहिए और ऐसे क़ानून बनाने वाली
सरकारों के खिलाफ़ भी कार्यवाई करनी चाहिए.
शाहनवाज़
आलम ने कहा कि उत्तर प्रदेश की तरफ से सुप्रीम कोर्ट में यह कहना कि
सुप्रीम कोर्ट अनुच्छेद 32 का इस्तेमाल करते हुए धर्मान्तरण के आरोप में
दर्ज एफआईआर रद्द नहीं कर सकता सीधे-सीधे सुप्रीम कोर्ट को धमकी देने के
बराबर है. उन्होंने कहा कि अनुच्छेद 32 नागरिकों को राज्य द्वारा अपने
मौलिक अधिकारों पर हमले से बचाव के लिए सीधे सुप्रीम कोर्ट जाने का अधिकार
देने के साथ ही सुप्रीम कोर्ट को ऐसे मामलों में स्वतः संज्ञान लेकर
नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करने का अधिकार भी देता है.
शाहनवाज़
आलम ने कहा कि अगर कोई सरकार सुप्रीम कोर्ट को अनुच्छेद 32 को इस्तेमाल
करने के उसके अधिकार को रोकने का प्रयास करती है तो इसका सीधा अर्थ है कि
वो संविधान को चुनौती दे रही है. यहां यह भी याद रखना ज़रूरी है कि बाबा
साहब भीमराव अम्बेडकर ने अनुच्छेद 32 को संविधान का सबसे महत्वपूर्ण
प्रावधान बताया था. इसलिए यह हमला सीधे बाबा साहब के विचारों पर भी है.
शाहनवाज़
आलम ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट का अपने फैसले में भारत के एक सेक्युलर देश
होने का भी हवाला देते हुए कहना कि भले ही 'धर्मनिरपेक्ष' शब्द 1976 में एक
संशोधन के माध्यम से संविधान में जोड़ा गया था, फिर भी धर्मनिरपेक्षता
संविधान के मूल ढांचे का एक अभिन्न अंग है, जैसा कि 1973 के केशवानंद भारती
बनाम केरल राज्य के निर्णय में कहा गया था' आरएसएस और उसके भारत को हिन्दू
राष्ट्र बनाने के एजेंडे के प्रति झुकाव रखने वाले सुप्रीम कोर्ट के जजों
के लिए भी सबक होना चाहिए. क्योंकि इससे यह भी साबित होता है कि संविधान की
प्रस्तावना से सेक्युलर शब्द हटाने की मांग वाली याचिकाओं का सुप्रीम
कोर्ट द्वारा स्वीकार कर लिया जाना संविधान विरोधी क़दम था.
उन्होंने
कहा कि यह कैसे सम्भव हो सकता है कि सुप्रीम कोर्ट के कुछ जज प्रस्ताना
में सेक्युलर शब्द के होने के महत्त्व को भी रेखांकित करें और सुप्रीम
कोर्ट के ही पंकज मित्तल जैसे जज संविधान में सेक्युलर शब्द के होने को
कलंक भी बताएं.
शाहनवाज़
आलम ने कहा कि पूर्व मुख्य न्यायाधीश डी वाई चन्द्रचूड की स्वीकारोक्ति के
बाद कि उन्होंने बाबरी मस्जिद - राम जन्मभूमि केस में फैसला भगवान से पूछकर
दिया था, फैसले का समीक्षा किया जाना तार्किक हो जाता है. इसलिए सुप्रीम
कोर्ट के जज धर्मेंद्र राणा का इस आशय के साथ दायर याचिका का ख़ारिज करते
हुए याचिकाकर्ता महमूद प्राचा पर 5 लाख रूपये का जुर्माना लगाया जाना
निंदनीय है. उन्होंने कहा कि 1985 के जजेज एक्ट को तकनिकी ढाल की तरह
इस्तेमाल करके गलत फैसलों का बचाव नहीं किया जा सकता.

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