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चंद्रचूड़ की काली छाया से मुक्ति के लिए सुप्रीम कोर्ट को पूजा स्थल अधिनियम को चुनौती देने वाली याचिकाओं को ख़ारिज कर देना चाहिए- शाहनवाज़ आलम

 


लखनऊ, 2 अक्टूबर 2025. कांग्रेस के राष्ट्रीय सचिव शाहनवाज़ आलम ने राष्ट्रीय न्यायिक अकादमी के पूर्व निदेशक प्रोफेसर मदन जी मोहन गोपाल के पूर्व सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ द्वारा बाबरी मस्जिद फैसले पर की गयीं टिप्पणीयों के आधार पर क्यूरेटिव याचिका दायर किए जाने के सुझाव का समर्थन किया है.

शाहनवाज़ आलम ने जारी बयान में कहा कि बाबरी मस्जिद पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला देश के न्यायिक इतिहास का सबसे बड़ा कलंक था जहां तथ्यों के बजाये आस्था के आधार पर फैसला दिया गया. सबसे अहम कि मुकदमा ज़मीन के टुकड़े की मिल्कीयत का था और फैसला मंदिर-मस्जिद बनाने का दे दिया गया जिसकी मांग ही किसी पक्ष ने नहीं की थी. उन्होंने कहा कि डीवाई चंद्रचूड़ का अपने हालिया इंटरव्यूज़ में यह स्वीकार करना कि वो मानते हैं कि बाबरी मस्जिद का निर्माण मंदिर तोड़कर किया गया था सुप्रीम कोर्ट के फैसले में उद्धरित तथ्यों के खिलाफ़ है. क्योंकि उस फैसले में यह कहीं नहीं लिखा है कि बाबरी मस्जिद मंदिर तोड़ कर निर्मित की गयी थी. ऐसे में यह क्यूरेटिव याचिका दायर करने का उपयुक्त आधार है. जिससे सुप्रीम कोर्ट अपनी गलती को सुधार कर न्यायपालिका में लोगों के भरोसे को फिर से बहाल करने के साथ ही अपने माथे पर लगे कलंक को भी साफ़ कर सकता है. 

शाहनवाज़ आलम ने कहा कि अदालत की यह ज़िम्मेदारी होती है कि वो अपने फैसले से लोगों में भरोसा पैदा करे कि उनके साथ न्याय हुआ है. ख़ासकर उन लोगों में जिनके पक्ष में फैसला नहीं आया है. बाबरी मस्जिद के फ़ैलले में सुप्रीम कोर्ट यह भरोसा दोनों ही पक्षों को  दिला पाने में विफल था. मुस्लिम पक्ष इसे तथ्यों के बजाये बहुसंख्यकों के आस्था पर आधारित फैसला मानता है तो वहीं विजेता पक्ष ने इसका श्रेय प्रधानमंत्री और भाजपा को दे कर साबित कर दिया कि फैसला न्यायिक नहीं राजनीतिक जीत है. ऐसे में सुप्रीम कोर्ट को क्यूरेटिव याचिका पर न्यायिक और तथ्य आधारित फैसला देना चाहिए.

उन्होंने कहा कि यह भी आश्चर्य की बात है कि 8 नवम्बर 2019 को दिए गए इस फैसले की समीक्षा के लिए डाली गयी सभी 18 याचिकाओं को सुप्रीम कोर्ट ने 12 दिसंबर 2019 को एक ही दिन में एक ही साथ कथित मेरिट के आधार पर ख़ारिज करने की जल्दबाज़ी क्यों दिखाई थी? इससे भी अहम सवाल कि जिन पांच जजों- एसए बोबड़े, डीवाई चंद्रचूड़, अशोक भूषण, एसए नज़ीर और संजीव खन्ना की बेंच ने इन याचिकाओं को ख़ारिज किया उनमें से संजीव खन्ना के अलावा सभी मूल फैसला सुनाने वाली बेंच के सदस्य थे. क्या यह कहीं से भी तार्किक कहा जा सकता है कि जज अपने ही फैसलों की समीक्षा के लिए कोई याचिका स्वीकार कर लेंगे?

कांग्रेस नेता ने कहा कि आरएसएस ने अपने तीनों बुनियादी एजेंडों- राम मंदिर, धारा 370 और यूनिफार्म सिविल कोड मामलों में न्यायपालिका के भ्र्ष्ट जजों के सहयोग से ही सफलता पायी है. इसमें से भी पहले दोनों का श्रेय चंद्रचूड़ को ही जाता है. यह भी याद रखने की ज़रूरत है कि चंद्रचूड़ जी ने ही 370 पर समीक्षा याचिकाओं की सुनवाई को कथित मेरिट के आधार पर ख़ारिज कर दिया था. 

शाहनवाज़ आलम ने कहा कि इसीतरह यूनिफार्म सिविल कोड मुद्दे पर भी सरकार ने 21 वें लॉ कमीशन की बात नहीं मानी जिसने यूनिफार्म सिविल कोड का विरोध किया था. उसने उसके कार्यकाल बीत जाने के लम्बे समय बाद अपनी विचारधारा के अनुकूल हिजाब के खिलाफ़ फैसला देने वाले कर्नाटक हाईकोर्ट के पूर्व जज ऋतू राज अवस्थी को लॉ कमीशन का प्रमुख बनाया तो वहीं हिंदुत्व की फैक्ट्री से निकले 'लव जेहाद' शब्द को क़ानूनी मान्यता देने वाले केरल हाईकोर्ट के जज केटी संकरण को इसका सदस्य बनाया. यह आश्चर्य की बात नहीं कि 22 वें लॉ कमीशन ने यूसीसी का पक्ष लिया और सरकार उसके आधार पर ही इसे लाने की बात कर रही है. जिससे साबित होता है कि आरएसएस का कोई भी अजेंडा न्यायिक दृष्टि से स्वाभाविक नहीं है. इसीलिए उसे जजों जो मैनेज करना पड़ता है.

उन्होंने पूर्व सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ की अशुभ परछायी से अपने को मुक्त करने के लिए सुप्रीम कोर्ट से पूजा स्थल अधिनियम को चुनौती देने वाली सभी याचिकाओं को तत्काल ख़ारिज कर देने की भी अपील की है.


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