नई दिल्ली, 6 अप्रेल 2025. सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में
जजों की नियुक्ति में पिछड़ों, दलितों, अल्पसंख्यकों और आदिवासियों की
उपेक्षा ने देश की न्यायिक व्यवस्था की विश्वसनीयता को बहुजनों की नज़र में
संदिग्ध बना दिया है. अगर न्यायपालिका में सामाजिक संतुलन नहीं होगा तो
फिर से मनुवादी व्यवस्था लागू हो जाएगी. भाजपा इसी मनुवादी व्यवस्था को
लागू करना चाहती है. ये बातें कांग्रेस के राष्ट्रीय सचिव शाहनवाज़ आलम ने
साप्ताहिक स्पीक अप कार्यक्रम की 189 वीं कड़ी में कहीं.
शाहनवाज़
आलम ने कहा कि क़ानून और न्याय मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने संसद में
स्वीकार किया है कि 2018 से अब तक सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में हुई 715
नियुक्तियों में से 551 सवर्ण हैं. जो कुल नियुक्ति का अकेले 77 प्रतिशत
है. इसीतरह दलित वर्ग के 3 प्रतिशत यानी 22, आदिवासी समाज के 2 प्रतिशत
यानी 16, पिछड़े समाज के 12 प्रतिशत यानी 89 और अल्पसंख्यक वर्ग के कुल 5
प्रतिशत यानी 37 लोगों को ही कॉलेजीयम ने जज के पद पर नियुक्ति दी.
उन्होंने
कहा कि सामान्य वर्ग की कुल आबादी 15 प्रतिशत है लेकिन जजों की नियुक्ति
में उन्हें 77 प्रतिशत हिस्सेदारी दी गयी है. वहीं जिन बहुजनों की आबादी 85
प्रतिशत है उन्हें 23 प्रतिशत में समेट दिया गया है.
शाहनवाज़
आलम ने कहा कि इन आंकड़ों ने साबित कर दिया है कि पिछड़े, दलित,
अल्पसंख्यक और आदिवासियों को मोदी सरकार में क्यों न्याय नहीं मिल रहा है.
बिल्किस बानो के बलात्कारियों को न्यायालय क्यों छोड़ देता है, राम मनोहर
नारायण मिश्रा महिलाओं के बलात्कार को अपराध मानने से क्यों इनकार कर देते
हैं या जज बीच-बीच में आरक्षण की समीक्षा की बात क्यों करते हैं.
उन्होंने
कहा कि मनुवादी व्यवस्था में न्याय करने का अधिकार सिर्फ़ सवर्णों को था.
शूद्र, अवर्ण, आदिवासियों को न्यायिक प्रक्रिया से बाहर रखा जाता था. भाजपा
कॉलेजीयम के माध्यम से फिर से वही मनुवादी व्यवस्था थोपना चाहती है. इसलिए
अगर लोकतंत्र को बचाना है तो भाजपा को सत्ता से हटाना होगा.
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