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राजनीतिक जनप्रतिनिधियों पर उनकी बिरदरियो की मांग उठाने पर उनकी बिरदरियो का दवाब कितना जायज ठहराया जा सकता है!


    मुस्लिम समुदाय अक्सर अपने नेताओं पर उनकी जायज मांगो को नही उठाने का आरोप लगाता रहता है।
             ।अशफाक कायमखानी।
जयपुर।

                हालांकि समय समय पर अधीकांश बिरदरियो (समुदाय) की तरफ से अक्सर सुनने को मिलता है कि उनकी बिरादरी के जनप्रतिनिधि अपनी बिरादरी की जायज मांग सरकार के सामने उठाते से कंपकंपाते है। अगर कभी कभार दाये-बांये से जायज मांगो के समर्थन मे उठाते भी है तो बहुत ही धीमीं धीमी आवाज मे जो नही उठाने के समान होती है। हां यह सही है कि उन्हे चुनाव लड़ने के लिये टिकट देने का आधार उनकी बिरादरी-समुदाय के उस क्षेत्र मे मतदाताओं का होता है पर उसका टिकट के लिये चयन होना उस दल के शीर्ष नेतृत्व की मर्शी पर निर्भर होता है ना की उस बिरादरी के मतदाताओं का होता है।
               अब इधर उधर जाने की बजाय सीधे राजस्थान के मुस्लिम समुदाय के सत्तारूढ़ कांग्रेस मे मोजूद वर्तमान मुस्लिम नेतृत्व को लेकर मदरसा पैराटीचर्स व उर्दू के आंदोलन को लेकर सोशल मीडिया व अन्य प्लेटफार्म पर खूब चर्चा रही कि उनके मुस्लिम विधायक व लीडरान खामोश बैठे है। कुछ हदतक बसपा से कांग्रेस मे आये विधायक वाजीब अली कुछ उनकी मांग के पक्ष मे आवाज बूलंद करते नजर जरूर आये है।
                      जनप्रतिनिधियों का कर्तव्य बनता है कि वो अपने मतदाताओं की सभी तरह की जायज मांगो को हल करवाने के लिये सरकार या पार्टी शीर्ष नेतृत्व स्तर पर मजबूती से आवाज उठाये। लेकिन राजनीति मे अपवाद के तौर पर कुछ नेताओं को छोड़कर बाकी सभी नेता अपने सरकार व राजनीतिक दल के मुखिया की पसंद के अनुसार ही मांग के लिये आवाज उठायेंगे या फिर कुंभकर्ण की तरह नींद मे सोते रहेंगे।
              राजस्थान मे मदरसा पैराटीचर्स व उर्दू को लेकर तीन साल से चल रहे आंदोलनों को लेकर खासतौर पर मुस्लिम समुदाय मे चर्चा आम है कि उनके विधायकों व सत्तारूढ़ दल के नेताओं ने उनकी मांग को सरकार व अपने दल के शीर्ष नेतृत्व के सामने मजबूती व कठोरता के साथ उठाया नही। पर इसके लिये उनको हकीकत को समझना होगा कि उनको चुनाव मे उम्मीदवार बनाने मे मुख्यमंत्री गहलोत की अधिक भूमिका रही व आगे रहने सम्भावना है। उनकी राजनीति को चमकाये रखने व रोजमर्रा के उनके होने वाले कामे के लिये मुख्यमंत्री का खुश होना उनके लिये पहली आवश्यकता है। तो वो सबसे पहले उस नेता का वफादार रहेगे जिसने उनको टिकट दिया एवं दिलवा सकते है। दूसरे नम्बर पर उनके वफादार रह सकते है जो आर्थिक मदद देकर उन्हें वर्तमान मंहगे चुनावी माहोल मे चुनाव लड़वाते है।
                उक्त मुद्दे पर राजस्थान के सभी नो मुस्लिम विधायकों पर नजर डाले तो उनमे से आठ विधायकों को कांग्रेस उम्मीदवार बनने के लिये पार्टी नेतृत्व की भूमिका रही है। ओर अब मुख्यमंत्री का उनके प्रति सोफ्ट होना उनके लिये आवश्यक है। तो उन सभी मुख्यमंत्री की मंशा के विपरीत कदम उठाने मे हिचकिचाहट जरूर रखेगे।वही वाजीब अली का मामला अलग है। उन्होंने बसपा का टिकट अपने स्तर पर पार्टी सिस्टम के अनुसार मेनेज करके चुनाव अपने दम पर व बिरादरी मतदाताओं के समर्थन से लड़कर जीतकर आये है। वो अब कांग्रेस के सिस्टम मे धीरे धीरे समायेंगे। 2023 के विधानसभा चुनाव मे उनको कांग्रेस से टिकट पाते है या नही।यह समय पर पता चलेगा कि पार्टी व सरकार मुखिया की बसपा के मुकाबले कांग्रेस मे किस रुप मे भूमिका रहती है। फूल मोहम्मद थानेदार को जलाकर मारने के उपरांत तत्तकालीन सवाईमाधोपुर से कांग्रेस विधायक अल्लाऊद्दीन आजाद ने उस हादसे को लेकर अपनी सरकार को मामूली तौर पर कठघरे मे खड़ा किया था। उसके उपरांत अगले चुनाव मे आजाद की टिकट काटी गई एवं आज वो पूरी तरह साईडलईन है। टिकट कटने पर अलाउद्दीन आजाद अगर बगावत करके निर्दलीय चुनाव लड़ते तो बिरादरी कहा खड़ी मिलती यह सब जानते है। विधायक वाजीब अली तो अपने दम पर बसपा मे टिकट मेनेज करके चुनाव जीतकर आये है। अगर अलाऊद्दीन आजाद की तरह कांग्रेस उनके साथ 2023 मे करती है तो वो फिर अलग रास्ता अपना कर चुनाव लड़ने की हिम्मत रखते है। तभी वो पैराटीचर्स व उर्दू की मांग को लेकर मजबूती से खड़े हुये है। इसी तरह पैराटीचर्स आंदोलन के मध्य वक्फ बोर्ड के पूर्व चेयरमैन खानू खान को लेकर सवाल उठे। पर सवाल उठाने वालो को पता होना चाहिये कि वो चैयरमैन अशोक गहलोत की मर्शी पर बने थे ओर आगे बन रहे है। जिसकी खाहे बाजरी उसकी बजाये हाजरी के सिंद्धांत के तहत वो वही करेगे जो गहलोत पसंद करेगे। इस तरह विधायक सफिया जुबैर ने जरा नाराजगी तब दिखाई जब उन्हें मंत्रिमंडल विस्तार मे अहमियत नही मिली। एवं उनके पति जुबैर खान वर्तमान मे प्रियंका गांधी के साथ यूपी मे प्रभारी है।
           राजस्थान के इतिहास मे मरहूम नाथूराम मिर्धा व शीशराम ओला जैसे कुछ मजबूत नेता जरुर माने जाते है जिनके पीछे मजबूती से क्षेत्र का मतदाता व उनकी बिरादरी हर समय खड़ी मिली एवं राजनीतिक दल की पहचान उनसे होती थी। वो कांग्रेस व उससे अलग दल से भी चुनाव लड़े तो मतदाताओं ने उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े रहकर उन्हें जीताया। तब जाकर वो बिरादरी की जायज मांगो के लिये दल के शीर्ष नेतृत्व से दो दो हाथ भी कर लेने मे सक्षम थे। इनके मुकाबले मे मुस्लिम मतदाता राजस्थान को छोड़कर कभी किसी भी रुप व हालात मे कांग्रेस से अलग जाने की ताकत नही रख पाता है तो उनसे राजनीतिक रुप से खोफ कोई नही खाता है। ऐसे हालात मे मुस्लिम लीडरशिप कभी पैदा नही हो सकती है। कांग्रेस की मुस्लिम लीडरशिप कांग्रेस शीर्ष नेताओं की मर्शी पर बदल बदल कर बनती व शून्य होती रहती है।
                    कुल मिलाकर यह है कि कांग्रेस के वर्तमान मुस्लिम विधायक व लीडरशिप को कांग्रेस पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने खड़ा किया है। जिनकी जगह चेहरा बदलकर अगर शीर्ष नेतृत्व दुसरें लोगो को चुनाव मैदान मे उतारे तो मुस्लिम मतदाता उसके खाते मे बिन बूलाये जाने की मजबूरी को शीर्ष नेतृत्व भलीभांति जानता है। मुस्लिम बिरादरी ने अपने स्तर पर कभी अपने मे से लीडरशिप को उभारा ही नही है। तो जैसा बोयेगे वैसा ही काटना पडता है। आज की राजनीति मे पार्टी के शीर्ष नेतृत्व की चमचागीरी व जीहुजूरी ही आगे बढने का मजबूत हथियार बनता जा रहा है।

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