भारतीय मुस्लिम समुदाय को अच्छी व प्रोग्रेसिव तथ्यों की स्वीकारिता पर ध्यान देना होगा।

 
   
                ।अशफाक कायमखानी।
 जयपुर।

                 भारतीय मुस्लिम समुदाय को कुरान-ए-पाक को ठीक से पढकर उसे समझते हुये रोजाना आवश्यकता अनुसार हो रहे दुनिया मे हो रहे विभिन्न तरह के रिसर्च व जदीद तालीम से निकलने वाले सकारात्मक निष्कर्षो की स्वीकारिता पर जोर देना चाहिए। जबकि देखने मे आया है कि अंग्रेजी की तालीम, प्रिंटिंग के अलावा लाऊड स्पीकर से आजान देने के सकारात्मक रिसर्च के उपयोग को स्वीकारिता देने मे मुस्लिम समुदाय ने सालो लगा देने का अंजाम आज हम भलीभांति देख व भुगत रहे है।
                भारत मे आबादी के हिसाब से सबसे बडे अल्पसंख्यक समुदाय मुस्लिम के मुकाबले छोटे छोटे अल्पसंख्यक समुदाय पारसी, जैन, बोद्ध, सिक्ख व ईसाई समुदाय का विभिन्न फिल्ड मे तरक्की करने का कारण जदीद तालीम को पाना व आवश्यकता अनुसार सकारात्मक रिसर्च को अपनाना ही प्रमुख कारण है। बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय के अग्रवाल व महेश्वरी बनियो के धन का बडा हिस्सा लोगो को शिक्षा सेंटर उपलब्ध करवा कर उनके मार्फत आम भारतीय को शिक्षित करना है। इसी तरह जैन समुदाय द्वारा धन का बडा हिस्सा चेरिटी मे उपयोग करते हुये बडे बडे अस्पताल कायम करके आम लोगो को चिकित्सा सुविधाओं का उपलब्ध करवाना प्रमुख होता है। ईसाई समुह के द्वारा संचालित शिक्षा केन्द्र मे प्रवेश पाने के लिये बडे बडे लोगो कीलाइन लगती है। इस समुह द्वारा शिक्षा केंद्रों के अतिरिक्त संचालित अस्पताल मे बेहतर व सस्ती चिकित्सा सुविधा भी आमजन को मिलती है। सिक्ख समुह के दान व खिदमत-ए-खल्क के जजबे को हर कोई सलाम करना चाहेगा।
                  एक जानकारी अनुसार अंग्रेजी भाषा मे बहुत से शब्द नही होने के कारण उसे दुनिया की सबसे रीच भाषा बनाने के लिये आक्सफोर्ड डिक्शनरी मे करीब दो हजार नये शब्द हर साल शामिल किये जाते है। जैसे डाकू को डैकोईट व लूट शब्द को शामिल करना। जबकि संस्कृत, उर्दू व अरबी भाषा काफी रीच होने के वावजूद उनमे दुनिया के नये शब्दों का शामिल होना ना के बराबर है। शायद इसलिए ही अंग्रेजी इंटरनेशनल भाषा का रुप धारण कर चुकीं है। आज अंग्रेजी भाषा के जानकार को दुनिया मे विशेष नजर से देखे जाने के साथ साथ उसके साथ अवसरों की भरमार रहती है।
               यह हकीकत है कि भारत के मुस्लिम तालीमी इदारे सामाजिक न निजी स्तर पर कायम तो खूब हुये व हो रहे है। लेकिन उनमे ऐसे बहुत कम इदारे है जहां मुस्लिम के अलावा अन्य धर्मों के मानने वालो के लिये ऐच्छिक विषयो की भी उपलब्धता हो। राजस्थान के सीकर शहर मे वाहिद चौहान नामक एक शख्स ने ऐक्सीलैंस नामक स्कूल व कालेज गलर्स के लिये शुरू करके निशुल्क अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा दैना शुरू किया। जहां ऐच्छिक विषय उर्दू-संस्कृत विषय के अतिरिक्त हर तरह की स्टीम का प्रबंध किया तो उसका फायदा तमाम धर्मो की छात्राओं को उनकी पसंद मुताबिक विषय पढने के रुप मे मिला। लेकिन ऐक्सीलैंस कालेज जैसे मुस्लिम समुदाय द्वारा भारत भर मे संचालित बहुत कम शैक्षणिक इदारे कायम है। मुस्लिम समुदाय आज अजीब अजीब नये-पुराने रीतिरिवाज अपनाने से थक नही रहा है। जबकि उसको जदीद तालीम को अपनाकर अपनी बदहाली से छुटकारा पाने का प्रयास करना चाहिए।
                कुछ कथित मुस्लिम धार्मिक ठेकेदार यह कहते थकते नही कि दुनिया की जिंदगी तो कुछ नही आखिरत की जिंदगी सुधारो। बेसक आखिरत की जिंदगी तो सुधारनी है। पर यह जमीन की जिंदगी को बिगाड़ने की बजाय इसको अच्छे से बनाओ ओर आखिरत की बनाओ। समुदाय को हर अच्छे सकारात्मक रिसर्च व बदलाव को स्वीकारने की आदत डालनी होगी। मोबाइल व नेट से जुड़े अनेक सिस्टम से इसलिए पूरी तरह अलग थलग रहे की यह बूराई की जड़ है। यह संकुचित सोच जमाने की दौड़ मे दौड़ लगाने से रोकेगा। वर्तमान समय मे आये नेट वर्किंग बदलाव जो मोबाइल व नेट सिस्टम का दुरुपयोग कर रहा है वो रुक भी नही रहा है। तो इस तरह के रिसर्च को सकारात्मक रुप मे अपनाते हुये इसका उपयोग करके दौड़ मे भाग लेना होगा। जब इस मामले मे अच्छे से समझ बढेगी तो इस नेट वर्किग का इस्तेमाल अच्छाई के लिये होगा। इस्लाम धर्म मे सफाई को आधा ईमान बताया गया है। जबकि आज अधीकांश मुस्लिम बस्तियों की पहचान गंदगी से होने लगी है।
                 कुल मिलाकर यह है कि मुस्लिम समुदाय को वर्तमान समय मे लगातार नित नये आ रहे सकारात्मक बदलाव व रिसर्च को स्वीकार करने की आदत डालने पर विचार करना चाहिए। जदीद तालीम बच्चों को दिलवाने के लिये भरसक प्रयत्न करके शासन-प्रशासन मे भागीदारी तय करने पर अमल करना होगा। तालीम ही बदहाली दूर करने व बदलाव लाने का शसक्त माध्यम साबित हो सकता है।

टिप्पणियाँ