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साम्प्रदायिकता न केवल मुसलमानों के लिए बल्कि पूरे देश के लिए हानिकारक है: मौलाना अरशद मदनी


 


नई दिल्ली: 19 अक्टूबर, जमीअत उलमाए हिन्द के  हअध्यक्ष मौलाना अरशद मदनी ने आज मीडिया को सम्बोदिथ करते हुए कहा के साम्प्रदायिकता न केवल मुसलमानों के लिए बल्कि पूरे देश के लिए हानिकारक है. मीडिया के प्रश्न "देश किस तरफ जा रहा है, जो लोग भय और आतंक के वातावरण में भी सच्ची बात कहने का हौसला रखते हैं उन्हें विभिन्न तरीकों से प्रताड़ित किया जा रहा है, इस संबंध में आपकी क्या राय है? का जवाब देते हुए कहा के निसंदेह देश खराब दौर से गुजर रहा है. मैं तो कहूंगा कि इस तरह के हालात देश के विभाजन के समय भी पैदा नहीं हुए थे. उस वक्त मारकाट और क़त्ल का वातावरण ज़रूर था, लेकिन हमारा समाज संप्रदायिक आधार पर विभाजित नहीं हुआ था. जमीअत उलमा हिंद देश की आजादी के बाद से ही इन खतरों को महसूस कर रही है और उसने एक बार नहीं बल्कि हर अवसर पर और हर स्तर पर बार-बार आगाह किया कि संप्रदायिकता के डंक को खत्म करो. अगर इसे खत्म नहीं किया गया तो देश उस स्थान पर पहुंच जाएगा जहां चाह कर भी संभालना मुश्किल होगा. मुझे चिंता इस बात की है कि देश की आजादी के बाद जो लोग सत्ता में आए उन्हें भी ऐसे हालात के पैदा होने का एहसास था. इसके बावजूद उन्होंने इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया. अगर ध्यान दिया होता तो आज हालात कुछ और होते. देश के लिए कांग्रेस की सेवाओं को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. हमें अफसोस सिर्फ इस बात का है कि आज जो चीजें हो रही हैं, यह तो हम पहले से जानते थे. आज एक खास सोच को देश पर थोपने की कोशिश हो रही है. लोकतंत्र में तानाशाही की मिलावट से आगे चलकर किस कदर तबाही हो सकती है, इस बारे में सोचकर ही डर लगता है. शहर से गांव तक संप्रदायिक सद्भाव को तबाह करने की साजिशें हो रही हैं. हर मसले को धार्मिक दृष्टिकोण से देखा जाने लगा है. दुख यह है कि सत्ता में बैठे लोग हर मसले को एक धार्मिक चश्मे से देख रहे हैं. इस वजह से नए-नए मसले जन्म ले रहे हैं. अगर वह खुली मानसिकता और सकारात्मक सोच का प्रमाण देते और खुद को कट्टरता के खोल से बाहर निकाल लेते तो आज जो देश में हो रहा है वह कभी नहीं होता।


 


 प्रश्न "आज जो कुछ हो रहा है उसके पीछे क्या कोई खास नजरिया काम कर रहा है या बीजेपी और उसके सहयोगी संगठनों का हाथ है या कोई और दूसरी वजह ? का जवाब देते हुए कहा के आपने अच्छा सवाल किया है. पहली नज़र में तो यही कहा जाता है कि सब कुछ अनजाने में हो रहा है, लेकिन ऐसा नहीं है. गाय की रक्षा का मामला हो या देश प्रेम का, इन सब के पीछे एक नियोजित षडयंत्र के सिद्धांत काम कर रहे हैं. सब जानते हैं कि इसके पीछे एक ऐसे संगठन का हाथ है जो लंबे समय से वैचारिक युद्ध लड़ रही है. यह वैचारिक युद्ध हिंदू राष्ट्र की स्थापना के लिए है. यह तो आर एस एस का एक विजन है और इस मिशन के तहत देश को चलाया जा रहा है. अगर आरएसएस नहीं चाहता  तो क्या देश का नक्शा ऐसा हो सकता था, जो आज दुनिया के सामने है. आरएसएस की एक ऐसी पॉलिसी है, जिसे हम लोग पहले से जानते थे और यही दृष्टिकोण गोलवलकर और सावरकर की लेखनी में मौजूद है और अब यह किताब उर्दू में भी आ गई है।


इससे यह संकेत मिल रहा था कि अगर किसी वक्त सत्ता संप्रदायिक शक्तियों के हाथों में चली गई तो मुल्क का अंजाम क्या होगा. इससे अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक ही नहीं बल्कि भारत का नुकसान होगा. यहां हमारा मकसद किसी ख़ास पार्टी को निशाना बनाने का हरगिज़ नहीं है बल्कि हमारे नजदीक देश का संविधान आपसी सद्भाव और शांति सब से अहम है. जहां कहीं भी देश के खिलाफ कोई बात नजर आती है, मैं उसके खिलाफ आवाज बुलंद करता हूं. क्या संविधान में हर नागरिक को बराबर के हक नहीं दिए गए हैं? क्या संविधान में यह उल्लेख नहीं है कि किसी भी नागरिक के साथ जात समुदाय बिरादरी रंग नस्ल और मजहब की बुनियाद पर कोई भेदभाव नहीं होगा? यह सवाल में इसलिए कर रहा हूं कि इस वक्त जो लोग हुकूमत में हैं वह भी संविधान की बात करते हैं. महात्मा गांधी की अहिंसा नीति का प्रचार कर रहे हैं. फिर धर्म की बुनियाद पर नागरिकों के दरमियान भेदभाव क्यों बढ़ता जा रहा है? देश में धार्मिक कट्टरता को बढ़ावा क्यों दिया जा रहा है? एक तरफ "सबका साथ सबका विकास और सबका विश्वास" का नारा है तो दूसरी तरफ सत्ता में बैठे लोग अपने अमर्यादित बयानों से माहौल को खराब करने की कोशिश करते हैं।


इस शांति के वातावरण में डर का माहौल पैदा कर दिया गया है. हमारे नेताओं को यह समझना होगा कि सरकारें डर और खौफ से नहीं चला करतीं, बल्कि मोहब्बत और न्याय से चलती हैं. हमारा देश पहले भी जन्नत था आज भी है, सिर्फ इससे नफरत की सियासत को निकाल देने की जरूरत है.


 प्रश्न: सच्चाई तो यह भी है कि मुसलमानों के साथ दूसरी सेक्युलर पार्टियों ने भी इंसाफ नहीं किया. आजादी के बाद लंबे समय तक कांग्रेस सत्ता में रही लेकिन कुछ करने के बजाय उसने मुसलमानों को उलझा कर रखा. इस पर क्या कहेंगे?


उत्तर: आपका सवाल बिल्कुल सही है, लेकिन क्या कोई शख्स यह कह सकता है कि इसकी पॉलिसी वही थी जो आज की सरकार की है. सत्ताधारी दल और दूसरी पार्टियों में जो फर्क नजर आता है उसको आप भी महसूस कर रहे होंगे. हम कांग्रेस के समय भी संतुष्ट नहीं रहे. आप उस वक्त के अखबारों को उठाकर देखें जहां कहीं भी कोई गलत बात देखी हम उनसे लड़े और उन्हें रोकने का प्रयास किया. कभी हम उन्हें पीछे धकेलते थे कभी वह हमें पीछे धकेलते थे. मगर अब स्थिति यह है कि हम शिकायत भी नहीं कर सकते. आज हम ही नहीं न्याय में विश्वास रखने वाले दुसरे लोगों के साथ भी यही मसला है. हमारे प्रदर्शन और शिकायत को एक नया अर्थ और नया रूप दे दिया जाता है. इसे देश विरोधी गतिविधियों से जोड़ा जाने लगता है. यह बात आपके जेहन में अवश्य होगी، हालांकि आपने उस जमाने को नहीं देखा होगा लेकिन जानते होंगे, पढ़ा होगा. जब देश आज़ाद हो रहा था उस वक्त देश के अंदर मुसलमानों के वजूद का मसला पैदा हो गया था. मुसलमान कैसे रहें? मस्जिदें दूसरे लोगों के कब्जे में चलीं गयीं कब्रिस्तान ले लिए गए, मसला था कि मुसलमान इस मुल्क के अंदर कैसे रहें, लेकिन कांग्रेस से लड़कर जमीयत ने अपना वजूद तस्लीम करा लिया. कोई बड़े से बड़ा संप्रदायिक यह नहीं कह सकता कि हम भारतीय नहीं हैं. आज मसला हमारे अधिकारों का है।


आज की स्थिति यह है कि अपने अधिकार के लिए हमें जिस तरह लड़ना चाहिए था उसके दरवाज़े भी बंद होते चले जा रहे हैं. विशिष्ट सिद्धांत को स्थापित करने की साजिश हो रही है. अल्पसंख्यकों खास तौर से मुसलमानों पर जमीन तंग करके उन्हें यह बताने की कोशिश हो रही है कि अब तुम्हें हमारी शर्तों पर ही देश में रहना होगा.


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