साहित्य रचना जीवन का चित्रण है - डाॅ0 सदानन्द प्रसाद गुप्त


उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा प्रेमचन्द एवं मैथिलीशरण गुप्त पर केन्द्रित एक दिवसीय संगोष्ठी का आयोजन दिनांक 31 जुलाई, 2019 को यशपाल सभागार, हिन्दी भवन में दो सत्रांे में  डाॅ0 सदानन्दप्रसाद गुप्त, मा0 कार्यकारी अध्यक्ष, उ0प्र0 हिन्दी संस्थान की अध्यक्षता में किया गया।
संगोष्ठि में मुख्य अतिथि के रूप मंे प्रो0 कमल किशोर गोयनका ने अपने उद्बोधन में कहा कि प्रेमचन्द का व्यक्तित्व बहुत व्यापक है। प्रेमचन्द को उनकी समग्रता से पहचाना जा सकता है। किसी एक रचना से लेखक या साहित्यकार का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता है। प्रेमचन्द को समझने का रास्ता प्रेमचन्द से होकर ही जाता है। स्त्री चेतना व स्त्री विमर्श पर उनकी कहानियाँ क्रांतिकारी स्थान रखती हैं। प्रेमचन्द लिखते हैं कि स्त्री में यदि पुरुष के गुण आ जायें तो व राक्षसी बन जाती है। जब स्त्री के गुण पुरुष में आ जायें तो वह देवता बना जाता है। प्रेमचन्द ने समाज के हर वर्ग, पक्ष पर केन्द्रित रचनाएँ लिखीं। मंत्र कहानी में भारतीयता की आत्मा बसती है। प्रेमचन्द की कहानी 'बालक' में मनुष्यता व मानवता का चरम दिखायी देता है। साहित्य का सोदेश्य होना अनिवार्य है।
संगोष्ठी के प्रथम सत्र में वक्तव्य देते हुए डाॅ0 अनुराधा तिवारी, लखनऊ ने कहा कि प्रेमचन्द महान कथाकार युग प्रणेता कालजयी, कथा सम्राट हैं। आज साहित्य अपनी उपयोगिता एवं उपादेयता के संघर्ष कर रहा है। कहानियों की बात जब होती है तो प्रेमचन्द हमें सबसे आगे दिखायी देते हैं। उनकी कहानियाँ राष्ट्रीयता एवं स्वराज की भावना से ओतप्रोत हैं। उनकी कहानी मंत्र, ठाकुर कुआँ, आदि की चर्चा की जाती रही है। प्रेमचन्द ने बच्चों के बालमनोविज्ञान को दृष्टि में रखकर बाल साहित्य भी लिखा है। उन्होंने बूढ़ी काकी, बेटों वाली विधवा कहानी, ईदगाह कहानी बच्चों के बाल मन पर गहरा प्रभाव ड़ालती है। प्रेमचन्द स्वयं एवं उनकी रचनाएँ एक दूसरे की पूरक हैं।   
डाॅ0 मंजु त्रिपाठी, लखनऊ ने कहा - प्रेमचन्द मानवतावादी लेखक हैं। प्रेमचन्द समाज में घटित होने वाली घटनाओं की बातों को रचनाओं में उतारते हैं। प्रेमचन्द हमें अपने लगते हैं। उनके उपन्यासों के पात्र लगता है जैसे हमारे आस-पास के हैं। सेवा सदन उपन्यास समाज को दिशा प्रदान करना है। सेवा सदन एक स्त्री के संघर्ष की पूरी कथा व्यथा को व्यक्त करता है। स्त्री यदि अपने अन्दर की ऊर्जा, शक्ति को जगा ले तो वह अपने जीवन का मन चाहा पड़ाव पा सकती है। सोजे वतन रचना राष्ट्रीयता से ओत प्रोत है। प्रेमाश्रम उपन्यास इसका एक उदाहरण है।  
 अध्यक्षीय सम्बोधन में डाॅ0 सदानन्दप्रसाद गुप्त, मा0 कार्यकारी अध्यक्ष, उ0प्र0 हिन्दी संस्थान ने कहा कि साहित्यकार समाज को सुधारने व समाज को दिशा प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। प्रेमचन्द नयी चेतना, नई आशावाद के पक्षधर हैं। प्रेमचन्द की रचनाएँ समाज को बदलने की बात करती हैं। साहित्यकार यथार्थ के चित्रण के साथ-साथ समाज को परिवर्तित करने का प्रयास करता है। साहित्यकार का उद्देश्य यही होना चाहिए कि यथार्थ के वर्णन के साथ सामाजिक व्यवस्था को भी बदलाव करने की क्षमता हो।
डाॅ0 सदानन्दप्रसाद गुप्त ने कहा कि राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन, परशुराम चतुर्वेदी, भीष्मसाहनी, अमृतलाल नागर, चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, हरिशंकर परसाई, त्रिलोचन शास्त्री, जगदीश गुप्त आदि साहित्यकारों को स्मरण करने का समय है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने माना है कि हिन्दू एक भौगोलिक शब्द है। भारती भारती में हिन्दू-मुस्लिम दोनों वर्गोें को सम्मिलित करते हुए राष्ट्रीयता को जागृत करने का प्रयास किया गया। हमें किसी भी रचनाकार का मूल्याँकन करते समय अन्य रचनाकारों की रचनाओं को भी भली भांति पढ़ना चाहिए। 
संगोष्ठी के द्वितीय सत्र में वक्ता के रूप में डाॅ0 रामकृष्ण, लखनऊ ने वक्तव्य देते हुए कहा कि मैथिलीशरण गुप्त का व्यक्तित्व बहुत विशद है। गुप्त जी की प्रत्येक रचना में राष्ट्रीयता का भाव मिल जाता है। उनकी भारत भारती रचना राष्ट्रीयता से पूर्णतः ओतप्रोत है। वे कालजयी कवि हैं। वे अतीत, वर्तमान व भविष्य पर आधारित रचनाएं की। गुप्त जी की कविताएँ नवजागरण पैदा करती हैं। साकेत रचना उर्मिला पर लिखी कालजयी रचना है। 
इसके अतिरिक्त डाॅ0 सुधीर प्रताप सिंह ने कहा कि मैथिलीशरण गुप्त के समय राष्ट्रवाद, समाजनुत्थान, व भारतीयता के पक्षधर थे। गुप्त जी की रचनाओं में सामाजिक, सांस्कृतिक पक्षों को विशेष स्थान प्रदान किया गया। गुप्त जी धरा को ही स्वर्ग बनाने के पक्षधर थे। उनकी रचनाएँ मानव व मानवता के कल्याण के लिए समर्पित हैं। गुप्त जी को समझने के लिए उनकी रचनाओं को समग्रता से अध्ययन करना होगा। पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर भारतीयता सर्वधर्म समभाव के लिए है। 
इस अवसर पर डाॅ0 सूर्यप्रसाद दीक्षित ने कहा कि  मैथिलीशरण गुप्त ने कई काव्यानुवाद किये। वे कई भाषाओं के ज्ञाता थे। उनकी सबसे बड़ी देन पौराणिकता का आधुनिकीकरण है। उनकी रचना जीवन मूल्यों से परिपूर्ण है। उन्होंने सर्वधर्म समभाव का समन्वय करने का प्रयास अपनी रचनाओं में किया। वे भारतीय व्यवस्था में वर्णाश्रम व्यवस्था से काफी प्रभावित थे। वे स्वदेशी आन्दोलन के पक्षधर थे। 'भारत भारती' रचना में देश की मूल भूत समस्याओं के निराकरण का प्रयास किया। राष्ट्रकवि व होता है जिसकी रचना में पूरा राष्ट्र समाहित होता है। उनका समग्रता को ग्रहण किये हुए है। वास्तविक कवि वही होता है जो सूक्ति वाक्य बन जाये। वे सम्बोधन गीत लिखते है। 'किसान' रचना गुप्त की ग्रामीण किसानों को आधार बनाकर लिखी गयी।  
कार्यक्रम का संचालन एवं आभार डाॅ0 अमिता दुबे, सम्पादक, उ0प्र0 हिन्दी संस्थान ने किया। 


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