कला अभिरूचि पाठ्यक्रम

राज्य संग्रहालय लखनऊ में दिनांक 30 जनवरी से 16 फरवरी तक आयोजित होने वाली ‘‘कला अभिरुचि पाठ्यक्रम‘‘ के श्रृंखला के 12वे दिन आज दिनांक 13 फरवरी 2019 को राज्य संग्रहालय लखनऊ के प्रदर्शक व्याख्याता डॉ0 विनय कुमार सिंह ने ‘‘प्राचीन भारतीय मुद्राएंः विविध आयाम‘‘ विषय के द्वारा  मुद्रा के सभी संदर्भों को बड़ी सहजता के साथ  व्याख्यायित किया। 

उन्होंने बताया की मुद्रा की उत्पत्ति भले ही दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति, क्रय विक्रय या लेन देन को दृष्टिगत रखते हुए की गई थी, परंतु  कालांतर में अपने अंदर निहित कतिपय सीमाओं के होते हुए भी संतुलित धातु, मानक वजन, आकार प्रकार ,लांछन प्रतीक एवं मुद्रालेख के द्वारा यह जहां एक ओर इतिहास के अज्ञात एवं अल्पज्ञात  पक्षों के उद्घाटन में सहायक सिद्ध हुई हैं, वहीं दूसरी ओर सूत्रवत व संक्षिप्त एवं विश्वसनीय सूचनाओं के द्वारा अन्य पुरातात्विक एवं साहित्यिक स्रोतों से ज्ञात ऐतिहासिक पक्षों का समर्थन भी करती है। 

इस क्रम में डॉ0 सिंह ने बताया कि विनिमय के साधन के रूप में मानव जाति ने कौड़ियों से लेकर क्रेडिट कार्ड तक की यात्रा की है। यदि हमें मुद्रा के अतीत अथवा विनिमय की आवश्यकता के विषय में जानकारी प्राप्त करनी हो तो हमें मुद्रा के अतीत के पृष्ठों को पलटना पड़ेगा। इस क्रम में हम पाते हैं की पुरापाषाण काल, मध्य पाषाण काल में मानव जहां आखेटक, संग्राहक एवं पशुपालक की स्थिति में था वही नवपाषाण काल में खाद्य उत्पादक की स्थिति में आया जिसके परिणामस्वरूप अधिशेष उत्पादन तथा कालांतर में लोहे के आविष्कार से इस अधिशेष उत्पादन में बढ़ोतरी के कारण अन्य जातियों की उत्पत्ति ने विनिमय व्यवस्था के अंतर्गत अदला-बदली, लेन-देन प्रक्रिया को आधार प्रदान किया। 

मुद्रा के विविध आयामों की चर्चा के क्रम में उन्होंने बताया की प्राचीन भारत में मुद्राओं के निर्माण में रजत, ताम्र, स्वर्ण,निकिल, सीसा जैसी धातुओं का प्रयोग किया गया। महाजनपद काल, मौर्य काल में जहां इनके निर्माण के लिए रजत मुद्राओं का प्रयोग ज्यादा मात्रा में मिलता है वही इंडोग्रीक, कुषाण राजवंशों के भारत में समावेश के साथ साथ गुप्त काल में भी बढ़ती व्यापारिक गतिविधियों के कारण इन्होने स्वर्ण मुद्राओं का प्रवर्तन भी किया। मुद्रा निर्माण पद्धतियों की चर्चा करते हुए प्राचीन भारत में प्रचलित मुद्रा निर्माण की चार तकनीको क्रमशः आहत, ढलुआ ,ठप्पामार एवं रिपोसे पर विस्तृत रूप से प्रकाश डाला। इसके अतिरिक्त उन्होंने प्राचीन भारत में प्रयुक्त मुद्रा, भारमान प्रणाली, मुद्रालेखों के साथ साथ मुद्राओं के पुरो एवं पृष्ठभाग पर अंकित प्रतीकों के अंकन के कारणों तथा उनके माध्यम से प्राचीन भारत के विभिन्न राजवंशों के राजनीतिक इतिहास, धार्मिक ,सामाजिक, प्रशासनिक इतिहास पर पड़ने वाले प्रकाश को उदाहरण सहित व्याख्यायित किया। आगे उन्होंने बताया कि यदि ये मुद्रायंे न होती तो शायद भारतीय इतिहास के पन्नो में अंधकार युग की संज्ञा से अभिहीत द्वितीय शती ईसा पूर्व से लेकर द्वितीय शती ईस्वी तक के काल के अंतर्गत शासन करने वाले हिन्द यवन, शक-पह्लव, कुषाण शासको के विषय में विस्तृत जानकारी का अभाव होता। भारत में विद्यमान यौधेय, औदुम्बर, कुणिंद, मालव गणराज्यो के इतिहास, ब्राह्मी लिपि के उद्वाचन के साथ ही गुप्त शासक समुद्रगुप्त एवं कुमारगुप्त द्वारा आयोजित अश्वमेघ यज्ञ का  समर्थन करती ये मुद्राएं ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है।

कार्यकम का संचालन श्रीमती रेनू द्विवेदी सहायक निदेशक, पुरातत्व (शैक्षिक कार्यक्रम प्रभारी) ने किया। कार्यकम के अन्त में डाॅ0 आनन्द कुमार सिंह, निदेशक उ0प्र0 संग्रहालय निदेशालय ने ‘‘प्राचीन भारतीय मुद्राएंः विविध आयाम‘‘ विषय पर अत्यन्त सजीवता के साथ विद्यार्थियों के मध्य दिये गये व्याख्यान के लिए वक्ता को धन्यवाद ज्ञापन करने के साथ-साथ प्रतिभागियों तथा अतिथियों एवं पत्रकार बन्धुओं को धन्यवाद ज्ञापित किया। निदेशक महोदय ने बताया कि वास्तव में ऐतिहासिक दृष्टि से इन प्राचीन मुद्राओं का अपना एक अलग महत्व है, जिसके कारण इनके द्वारा प्रदान सूत्रवत एवं संक्षिप्त जानकारी इतिहास लेखन को एक नया आयाम प्रदान करती हंै ।

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